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A Hidden Tax - जानें इन्फ्लेशन टैक्स क्या है और यह किन परिस्थितियों में जनता पर लगाया जाता है ?

Aastha Singh

जब सरकार अधिक पैसा छापती है या ब्याज की दरों को कम करती है, तो बाजार में नकदी बढ़ जाती है, जो लंबे समय में इन्फ्लेशन को बढ़ावा देता है। ऐसे में अगर किसी व्यक्ति के पास नकदी है, हालांकि, इन्फ्लेशन बढ़ने के बाद इस नकदी का मूल्य कम हो जाता है। इन्फ्लेशन बढ़ने के बाद कैश की वैल्यू में जो कमी आती है उस कमी की डिग्री को 'इन्फ्लेशन टैक्स' कहा जाता है।

इन्फ्लेशन टैक्स सरकार द्वारा लगाया गया बाहरी टैक्स नहीं है, यह एक प्राकृतिक घटना है जो कीमतों में लगातार वृद्धि और करेंसी की वैल्यू कम होने के कारण होती है।

यह सरकारी क़र्ज़ या फिस्कल डेफिसिट (fiscal deficit) को कम करने की एक इनडाइरेक्ट स्ट्रेटेजी है और इसे दुनिया भर के पॉलिसी मेकर्स के द्वारा अपनाया जाता है। उधार का भुगतान करने क अधिक सीधा तरीका पैसा कमाना है। और इस मामले में जब सकल घरेलू उत्पाद यानी GDP में वृद्धि की संभावनाएं धूमिल रहती हैं जिससे सरकार पर्याप्त रेवेन्यू उत्पन्न करके क़र्ज़ चूका सकती है। तो, ऐसी परिस्थितियों में एक अधिक इनडाइरेक्ट दृष्टिकोण अनिवार्य है और भारत में अभी यही हम देख रहे हैं।

अधिक इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं पर लगता है इन्फ्लेशन टैक्स

इन्फ्लेशन टैक्स में, सरकार या तो आवश्यक वस्तुओं पर टैक्स बढ़ाकर या रिज़र्व बैंक से अधिक पैसा छापने के लिए कहकर कीमतों को बढ़ा सकती है। ऐसे टैक्स को बढ़ाने का परिणाम यह होता है कि वे कीमतों में जनरल वृद्धि के रूप में उपभोक्ताओं को ट्रांसफर हो जाते हैं। और यह टैक्स में सामान्य वृद्धि उन वस्तुओं या इनपुट्स पर की जाती है जो एक देश में अधिकांश उपभोक्ताओं द्वारा उपयोग किए जाते हैं।

भारत में उत्पादन की प्रक्रिया का एक प्रमुख इनपुट फ्यूल (Fuel) है। फ्यूल की कीमतें बढ़ती हैं तो काफी हद तक ट्रान्सपोर्टेशन की लागत बढ़ती हैं और और हमारे दिन-प्रतिदिन के खर्चों को सीधे प्रभावित करती हैं। यहीं नहीं प्रोडक्शन में भी फ्यूल एक यूनिवर्सल इनपुट के रूप में भी कार्य करता है। कृषि उत्पादों को गांवों से शहरी केंद्रों में ले जाया जाता है और यह ट्रांसपोर्टेशन डीजल पर निर्भर करता है। फ्यूल की कीमतों में वृद्धि कृषि क्षेत्र को प्रभावित करती है क्योंकि किसानों / वितरकों को अधिक लागत लगानी पड़ती है और कम लाभ होता है, इसलिए वे लागत को उपभोगताओं को बढ़ी हुई कीमतों के रूप में पास कर देते हैं।

एक आसान उदाहरण से समझते हैं

आइए इस कांसेप्ट को एक सरल उदाहरण से समझते हैं।

मान लीजिये आपकी जेब में 100 रुपये है। जब इन्फ्लेशन कम होता है, तो आप संभावित रूप से उस 100 रुपये से 2 किलो चावल खरीद सकते हैं। लेकिन जब सरकार फ्यूल पर या बेसिक खाने के आइटम पर टैक्स बढ़ाती है, तो वही 100 रुपये आपको उच्च कीमतों पर 1 किलो चावल दिला पायेगा। अब कल्पना कीजिए कि यह सभी वस्तुओं के साथ हो रहा है। यह एक जनरल इन्फ्लेशन है। तो सरकार महंगाई बढ़ाने के लिए फ़ूड और फ्यूल पर टैक्स क्यों लगाती है ? सरकार ऐसा सरकारी कर्ज़े की रियल वैल्यू को मिटाने के लिए करती है।

चावल की खरीद के अपने उदाहरण को जारी रखते हुए, मान लीजिए कि इन्फ्लेशन के होने से पहले हम चावल खरीदने के लिए अपने पड़ोसी से 100 रुपये उधार लेते हैं। इससे हम 2 किलो चावल खरीद सकते थे। इसी बीच, सरकार ने फ्यूल की कीमत में वृद्धि की, जिससे कीमतों का सामान्य स्तर बढ़ गया। जब हमने पड़ोसी को वापस चुकाया, तो वह उतने ही पैसे में 2 किलो चावल नहीं खरीद सका। इस बीच क्या हुआ कि सभी सामानों के दाम बढ़ गए। इससे आपको यानी कर्ज़दार को फायदा हुआ और आपके पड़ोसी लेंडर को नुक्सान।

अब, यदि हम इस कांसेप्ट को पूरी अर्थव्यवस्था पर लागू करते हैं, तो फ्यूल की कीमतों में वृद्धि सरकार द्वारा एक स्ट्रेटेजी है जिसे सरकार अपने सरकारी कर्ज का भुगतान करने की आवश्यकता के चलते लागू करती है। दूसरे शब्दों में, अब सरकार वह उधार लेने वाली कर्ज़दार है जिसे अर्थव्यवस्था में इन्फ्लेशन से लाभ होता है। इससे आंशिक रूप से यह पता चलता है की कच्चे तेल की कीमतों में कमी के बावजूद फ्यूल की कीमतों में लगातार वृद्धि क्यों होती है। इसके अलावा, यह रणनीति उन राज्यों द्वारा भी अपनाई जाती है जिनके पास फ्यूल पर वैट लगाने की शक्ति होती है। पिछले कुछ वर्षों में और इस वर्ष फ्यूल की कीमतों में निरंतर वृद्धि सरकारी ऋण के मिसमैनेजमेंट की ओर इशारा करती है।

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