कलई (Kalai) 
Lucknow-Hindi

Lucknow Kalai Art - जाने लखनऊ की पारंपरिक कला 'कलई' के बारे में और कैसे काम करते थे कलईवाले

कलई (Kalai) एक प्राचीन कला है जिसमें तांबे और पीतल जैसी सतहों को चांदी या टिन जैसी धातुओं के साथ कोट किया जाता है।

Aastha Singh

"भांडे कलई करा लो" यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि लखनऊ की वर्तमान पीढ़ी इस वाक्यांश के अर्थ से अनजान है।

कलई (Kalai) एक प्राचीन कला है जिसमें तांबे और पीतल जैसी सतहों को चांदी या टिन जैसी धातुओं के साथ कोट किया जाता है, ताकि इसे खाने के उपयोग के लिए सुरक्षित बनाया जा सके। जब पीतल और तांबे के बरतन पुराने हो जाते हैं, तो उन्हें छह से आठ महीने के बाद टिन-प्लेटिंग की आवश्यकता होती है और जो व्यक्ति यह पुन: टिनिंग करता है उसे 'कलाईवाला' कहा जाता है।

पुरातात्विक खुदाई और ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में कलई के काम वाले बरतनों के प्रमाण मिले हैं, जो साबित करते हैं कि यह कला रूप प्राचीन है। इस लुप्त होती कलई कला के अभ्यासियों का एक केंद्र अभी भी लखनऊ की भूली-बिसरी गलियों में खोजा जा सकता है और आज, हम इस कलई के काम की बात करेंगे जो विज्ञान और आध्यात्मिकता का मिश्रण माना जाता है।

विज्ञान और अध्यात्म का मिश्रण

कलई (Kalai)

पुराने जमाने के लोग आज भी कलाईवालों को उन लोगों के रूप में याद करते हैं, जो पीतल और तांबे के बर्तनों को कुशलता से गढ़ते थे। रसोई में इस्तेमाल किये जाने वाले बर्तनों में स्टेनलेस स्टील और एल्युमीनियम के बर्तन आने से पहले पीतल और तांबे के बर्तनों का इस्तेमाल किया जाता था। इस तरह के बर्तन भारतीय रसोई में दो कारणों से आम थे- विज्ञान और आध्यात्मिकता। आध्यात्मिकता में, यह माना जाता है कि ये धातुएँ सत्व और रजस से बनी हैं, जो सांख्य फलसफे (Samkhya Philosophy) के अनुसार ब्रह्मांड के मूल कॉम्पोनेन्ट हैं। विज्ञान के अनुसार, ये धातुएँ ऊष्मा (गर्मी) की अच्छी कंडक्टर होती हैं, इसलिए इनके इस्तेमाल से ईंधन की खपत कम होती हैं।

कलई के काम के पीछे का विज्ञान

कलई (Kalai)

कलई (Kalai) को विभिन्न तरीकों से किया जा सकता है और इसके लिए टिन/चांदी, कास्टिक सोडा, sal ammoniac (जिसे हिंदी में नौसादर पाउडर कहा जाता है) और पानी के उपयोग की आवश्यकता होती है। कलई (Kalai) की प्रक्रिया में पहला कदम तांबे के बर्तन को पहले कास्टिक सोडा से धोना होता है ताकि सतह की अशुद्धियों जैसे धूल से छुटकारा मिल सके। फिर बर्तन को उस एसिड से धोया जाता है जिसमें सोना शुद्ध करने वाला प्यूरिफाइंग कंपाउंड 'सूफा', एक नमक और एक अन्य एलिमेंट होता है।

अगला स्टेप कास्टिंग है, कलाईवाला' या कलाइगर फिर जमीन में एक गड्ढा खोदते हैं और एक अस्थायी ब्लास्ट फर्नेस तैयार करते हैं, इसे धौंकनी से हवा देते हैं, बाद में बर्तन को गर्म करते हैं। परंपरागत रूप से, इस प्रक्रिया में चांदी का उपयोग किया जाता था लेकिन चूंकि यह एक महंगी धातु बन गई है, इसलिए इसे टिन से बदल दिया गया है।

इसके अलावा, बर्तन पर नौसादर पाउडर छिड़का जाता है क्योंकि टिन/चांदी तेजी से पिघलता है और जैसे ही सतह पर सूती कपड़े से रगड़ा जाता है, परिणामस्वरूप एक सफेद धुआं और अजीब गंध आती है। एक बार यह प्रक्रिया पूरी हो जाने पर बर्तन को ठंडे पानी में डुबोया जाता है और फिर से टिन किए गए बर्तन की सतह चमकदार दिखाई देती है।

कलई (Kalai)

लखनऊ के याहियागंज और चौक क्षेत्र कुछ ऐसे स्थान हैं जहाँ आप अभी भी कलाईवालों की दुकानें खोज सकते हैं। हालांकि पीतल या तांबे के बर्तनों को खरीदना और उन्हें हर 6-7 महीनों में फिर से टिन करना एक परेशानी की तरह लग सकता है, लेकिन आपकी ओर से एक छोटा सा योगदान लखनऊ की इस कलात्मक विरासत के संरक्षण में मदद कर सकता है। इसके अलावा, अगली बार जब आप अपने परिवार और दोस्तों की मेजबानी करने का फैसला करते हैं, तो ऐसे बर्तन निश्चित रूप से आपके खाने की मेज पर सौंदर्य और आकर्षक जोड़ देंगे।

To get all the latest content, download our mobile application. Available for both iOS & Android devices. 

Pet Parents in India! Checkout THIS ultimate flight guide for a stress-free journey with pets

Hindustan Hastshilp Mahotsav 2025 kicks off in Lucknow; Honey Singh to perform on Nov 22

Pack a picnic, bring your people at THESE 9 Parks in Lucknow

This December, Lucknow is basically an endless party | 13 events you can’t miss!

9 events in Mumbai that will make you step out this December

SCROLL FOR NEXT